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कविता

प्रेम-वृक्ष

मंजूषा मन


प्रेम-वृक्ष
मेरे मन का
बड़ा ढीठ है
तुम बार-बार काटते हो इसे
पहले तुमने टहनियाँ काटीं
वे फिर उग आईं।
शाखाएँ काटीं
वे भी फिर उग आईं
परेशान होकर तुमने
इसे तने से काटा
जड़ से भी काटा
पर ये ढीठ
फिर उग आया
फूट आईं कोंपलें फिर।
जब भी काटा
हर बार
फिर-फिर
पनप ही आता है
पनप ही आएगा
कहो क्या किसी सूरत
मिटा सकोगे इसे
सदा के लिए।
मन की गहराई में दबा
प्रेम-बीज कैसे निकल पाओगे।
ये तो पनपता ही रहेगा
मेरे भावों की हवा पानी पाकर
मेरे आँसुओं की नमी पाकर।
 


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